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मदमस्त मैं

अंज अंग आँखें अंजन हैं , मदन की अंगचरी तुम . अंकुरित यौवन ये तन मन है , प्रेम में अंटाचित्त जग तुम ।। माणिक्य बहुगुना

नराधम

चंद कागज के टुकड़ों में नर इतरा रहा है , वशाकर श्वनों की मौत मर रहा है । न खबर है उसे कोई अपनों की न घर की , जब की उस पर मार पड रही है दर - दर की । धिक्कार है नराधम तुझको तेरे कर्म को , चमड़ी उधेड़ कर ज़लील करता शर्म को । कहें किस आधार पर रे तुझे मानव , तू तो दिन प्रति दिन होता जा रहा है दानव ।। 19/11/2008 चन्द्र प्रकाश बहुगुना(माणिक्य/पंकज )

तुम्हारा प्रेम

तुम्हारा प्रेम इस पत्थर .. दिल को ... मोम बना गया ... खुद निष्ठुरता अमाया में .. मेरा दिल तलाशता है ... तुम को , गुनगुनी धूप में बादल की छाँव में , रंगों में .. रंजो में .. कलकल में .. कलरव में ... खुद में महसूस करता हूँ .. हर क्षण में ... नदियाँ में .. कलकल में  , एकांत में , तुम्हें महसूस करता हूँ .. अपनी धडकनों में तुम्हें सुनता हूँ .. जब बर्फ़ सा पत्थर था दिल तुमने तपन बन पिघलाया .. आज बन पानी उबल रहा हूँ , बस कुछेक स्मृतियों के नगर बसे हैं हृदय में ..। चन्द्र प्रकाश बहुगुना / माणिक्य

तुम्हारी याद

कई रात तुम्हारी याद आती है  न जाने क्यों .....? नहीं सो पाता हूँ रात भर  न जाने क्यों ......? तुम्हारे उस नव यौवन को पाने की ललक तो नहीं ? नहीं नहीं मैं औरों सा नहीं , कुछ और चाहता हूँ , तुम जानती हो लेकिन अनजानी हो न जाने क्यों ..? मैं तुम को देखना चाहता हूँ , बात करना चाहता हूँ , लड़ना चाहता हूँ , रातों को सपने बुनता हूँ ... बस करवट बदलता हूँ .. वक्त न जाने कब बदलेगा , अभी बेरोजगार हूँ प्रेम के क़ाबिल नहीं , खता की है मैंने ,भोगने दो मुझे , बस भीगी पलकें हैं मेरी नव दुल्हन की तरह , कुछेक स्मृतियाँ संजोई हैं हृदयालय में ...। चन्द्र प्रकाश बहुगुना / माणिक्य

आत्म हत्या नहीं तो क्या करूँ ?

खुद बिक कर जिन्दगी बो दी खेतों में , मिट्टी में सनते ..         धूप में नहाते ... दिन-रात एक करते खेतों में । मेरा कसूर है अनपढ़ हूँ ... पढ़े लिखों को जीवन देता हूँ । अधिक फसल होने पर मैं निराश हो जाता हूँ ... कम होने पर मैं रोने लगता हूँ । जब फ़सल तबाह . तंगी होती है .. कई रोज भूखे सोते हैं लोन का नोटिस आता है फिर डंडे पड़ते हैं ..। क्या करूँ ??? आत्म हत्या नहीं तो , नई कुतिया ने बच्चे जन्माए थे . वो भी भूखे तड़फ कर रो लेते हैं ... मेरी आहट सुन कर रेंगते हुए दरवाजे तक आते हैं .. मेरे मिट्टी से सने पैर चाटते हैं । बस रो पड़ता हूँ ..। क्या करूँ ? आत्म हत्या भी नहीं कर सकता हूँ , कायर नहीं हूँ ..? लेकिन जिन्दा भी कैसे रहूँ ?? इस बार इंद्र देव ने साथ दिया .. फ़सल लहराई खेतों में .. पूर्ति से अधिक हुआ खेतों में . अब समस्या । कैसे बेच पाऊगा ? अब लागत भी नहीं मिलती है ... आश्चर्य तब हुआ जब एक नामी व्यक्ति ने वो बेचना शुरू किया .. मैंने जो कौड़ियों में बेचा था ... वो उसे कई गुना अच्छे दाम पाते हैं ... बस मुझे क्या मिलता है ... ज़िल्लत , मृत्यु , कर्ज कर्ज क्या वो भी