खुद बिक कर जिन्दगी बो दी खेतों में ,
मिट्टी में सनते ..
धूप में नहाते ...
दिन-रात एक करते खेतों में ।
मेरा कसूर है अनपढ़ हूँ ...
पढ़े लिखों को जीवन देता हूँ ।
अधिक फसल होने पर मैं निराश हो जाता हूँ ...
कम होने पर मैं रोने लगता हूँ ।
जब फ़सल तबाह .
तंगी होती है ..
कई रोज भूखे सोते हैं
लोन का नोटिस आता है
फिर डंडे पड़ते हैं ..।
क्या करूँ ???
आत्म हत्या नहीं तो ,
नई कुतिया ने बच्चे जन्माए थे .
वो भी भूखे तड़फ कर रो लेते हैं ...
मेरी आहट सुन कर
रेंगते हुए दरवाजे तक आते हैं ..
मेरे मिट्टी से सने पैर चाटते हैं ।
बस रो पड़ता हूँ ..।
क्या करूँ ?
आत्म हत्या भी नहीं कर सकता हूँ ,
कायर नहीं हूँ ..?
लेकिन जिन्दा भी कैसे रहूँ ??
इस बार इंद्र देव ने साथ दिया ..
फ़सल लहराई खेतों में ..
पूर्ति से अधिक हुआ खेतों में .
अब समस्या ।
कैसे बेच पाऊगा ?
अब लागत भी नहीं मिलती है ...
आश्चर्य तब हुआ जब एक नामी व्यक्ति ने वो बेचना शुरू किया ..
मैंने जो कौड़ियों में बेचा था ...
वो उसे कई गुना अच्छे दाम पाते हैं ...
बस मुझे क्या मिलता है ...
ज़िल्लत , मृत्यु , कर्ज
कर्ज क्या वो भी लेते हैं ...
मैं हजारों में लेता हूँ
वो करोड़ों में ,
बस में कर्ज ले कर विदेश नहीं भाग सकता हूँ ..
मेरे हज़ार वाले कर्जे में होता है बबाल ..
वो विदेशों में मौज लेते हैं ..
इतना भेद भाव क्यों ?
आत्म हत्या नहीं तो क्या करूँ ??
जो जीवन देते हैं अखिल देश को ..
उसको जीने का अधिकार नहीं क्या ??
वो आरक्षण जो शिक्षा के लिए है नौकरी के लिए है .
वो कौन खा जाता है मुझ तक तो पंहुचा नहीं ,
कोठियों में रह रहे बच्चों में बाट दिया जाता है ...
मैं आत्म हत्या नहीं तो क्या करूँ ?
जिसे अन्न दाता कहा जाता है .
मैं सार्वजनिक उत्सवों में नहीं जा सकता हूँ ..
अछूत समझा जाता हूँ ...
मैं कौन हूँ ..?
ना देश में इज्ज़त न लोगों में
मैं आत्म हत्या नहीं तो क्या करूँ ?
चंद्र प्रकाश बहुगुना / माणिक्य / पंकज
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