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राजनीति एक दुकान

ग़ज़ब की दुकान थी मित्रों ,
नारे बिक रहे थे ,
लोंगों की संवेदना बिक रही थी .,
दो किलो मसालेदार तोलना नेता जी ने कहा ,
क्या डालूँ दुकानदार बोला ?
नेता जी बोले क्या -क्या है ?
दुकानदार बोला - साम्प्रदायिकता , भुखमरी ,ग़रीबी का नकाब ,झूठे आँसू , इत्यादि बहुत कुछ ..।
नेताजी बोले सब तोल दो ...।
तभी प्रतिपक्षीय नेता जी आ धमके ,
गले मिले अब दोनों मानो प्रेमी कई जन्मों से हैं
कौन से ले रहे हो नारे एक नेता जी बोले .?
दूजे नेता जी ने सारी व्यथा कह सुनाई .,,
कहा अब लोग हो गये घर - घर मैं गौरी ,जयचन्द्र .
बस कुछ रोना धोना होता है ...
संवेदनाओं में हमला करना होता है .
नहीं बात बनी तो पउवा पकडाना पड़ता है ..
बस हम तो हैं भाई -भाई ...
जो भी जीते मिल -बाँटा खायेंगे ,
मैं जीता तो संसद में तुम रोना-रोना ,
बस यूँ काम चलेगा अपना ..
बस जब तक जनता हम में चिपकी है ..
कल्याण हमारा तब तक है ..
सभा - जुलूसों में आ जाते ..
खुद की पार्ट समझ कर ...
बस हमारी दुकानें चलती रहे भाया ...।।
माणिक्य बहुगुना / पंकज / चंद्र प्रकाश

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प्रेम का सात्विक अर्थ

प्यार है क्या ? यह प्रश्न हर किसी के मन में आता होगा । कई लोग इसे वासना के तराजू से तौलने की कोशिश करते हैं और कई केवल स्वार्थपूर्ति लेकिन ये सब हमारी गलती नहीं है आधुनिक समाज के मानव का स्वभाव है । लेकिन प्रेम/प्यार इन चीजों से काफ़ी आगे है ,उदाहरण स्वरूप आप एक कुत्ते के पिल्ले से प्यार करते हैं तो आप उस से कुछ आश रखते हो क्या ?और एक माँ से पूछना कि उस का जो वात्सल्य तुम्हारे प्रति है उस प्रेम के बदले वह कुछ चाहती है क्या ? नहीं ना तो तुम इसे स्वार्थ के तराजू से तौलने की क्यों कोशिश करते हो ? मुझे नहीं समझ आता शायद ये मुझ जैसे व्यक्ति के समझ से परे है । और प्यार हम किसी से भी करें बस उसका नाम बदल जाता है --- एक बच्चे का माँ से जो प्यार होता है वह वात्सल्य कहलाता है । किसी जानवर या अन्य प्राणी से किया प्यार दया भाव या आत्मीयता का भाव जाग्रत करता है । अपनी बहन,भाई और अन्य रिश्तों में जो प्यार होता है वह भी कहीं ना कहीं आत्मीयता के अर्थ को संजोए रखता है । और हमारा प्रकृति के प्रति प्रेम उसे तो हम शायद ही शब्दों के तराजू से तोल पाएं क्योंकि उस में कोई भी स्वार्थ नहीं है बस खोने का म

।। तुम ।।

रंगे ग़ुलाब सी तुम ... सपनों का सरताज़ सी तुम ... मैं यों ही सो जाना चाहता हूँ .. जब से सपनों में आई हो तुम .... ©®चंद्र प्रकाश बहुगुना / पंकज / माणिक्य

"संस्कृत" तुझ से कौन नहीं चिरपरिचित

खग विहग करते गुण गान , शिष्य रखते गुरु का मान .. हमने पूजा तुझको वेद पुराण , स्वार्थ हित के लिए निकला नया नीति विज्ञान ।। उन्मूलन के लिए बन गए भाषा विज्ञान , क्यों मिलते हैं कुछ मृत अवशेष .. तुझ बिन क्या है औरों में विशेष , क्या नहीं था इसके पास ... क्या रही होगी हम को इससे आस , लेकिन तुझ से कौन नहीं चिरपरिचिय ।। हर घर में होता गुण गान .. हर साहित्य में होता मान ... फिर क्यों नहीं करते तेरा सजीव गान , क्यों वेद , पुराण उनिषद, षड्दर्शन में है मान .. लेकिन तुझ से कौन नहीं चिरपरिचित ।।